जब ख़ातेमा ब ख़ैर हुआ फौजे शाह का
कौसर पे क़ाफ़ेला गया प्यासी सिपाह का
घर लुट गया जनाबे रिसालत पनाह का
ख़ाक उड़ रही थी हाल ये था बारगाह का
भाई थे न रफ़ीक़ न वो नूरे ऐन थे
दो बहने रोने वाली थीं और इक हुसैन थे
ड्यौढ़ी को सुबह तकते थे वो रश्क़े जां सवार
ख़ादिम वहां था कोई न कोई रफ़ीक़े दयार
वो लूह दोपहर की तपिश और वो ग़ुबार
परदा हवा से सर को पटकता था बार बार
आफ़त थी बेकसी थी मुसीबत थी प्यास थी
बे फौज बादशाह था ड्योढ़ी उदास थी
फरमाते थे के वाह ये ताख़ीर ऐ अजल
अकबर के बाद कौन सा था ज़ीस्त का महल
अब मुझको इक बरस के बराबर है एक पल
मौत आए अब ये है शज्रे ज़िन्दगी का फल
इक जां छुरी गुलूम पे चलती तो ख़ूब था
ये जान उनके साथ निकलती तो ख़ूब था
हम सब के बाद ख़ल्क़ में जाने को रह गए
सर पीटने को अश्क़ बहाने को रह गए
इक नौजवां का दाग़ उठाने को रह गए
पीरी में आह ठोकरें खाने को रह गए
बेटा कहां ख़बर जो दमे इन्तेक़ाल ले
इतना नहीं कोई के गिरूं तो संम्भाल ले
नागाह सूए लाशे पिसर पे जा पड़ी नज़र
चिल्लाए दिल को थाम के सुल्ताने बहरोबर
सोते हो क्या धरे हुए रुख़सार ख़ाक पर
अकबर उठो कि घोड़े से गिरता है अब पिसर
भूले पिदर को नींद मे क़ुरबान आप के
आओ नमाज़े अस्र पढ़ो साथ बाप के
अब्बासे नामदार तराई से उठ के आओ
फुंकता है क़ल्ब जलते हैं सब जिगर के घाव
छिड़को मेरी ज़िरा पे जो पानी कहीं से पाओ
चलते हुए अदुम के मुसाफिर से मिल तो जाओ
ग़फ़लत की तुमको नींद है शब्बीर क्या करे
मेरी तरह किसी को न बेकस ख़ुदा करे
चिल्लाया फौज को पिसरे साद नाबुकार
लो घेर लो हुसैन को सब मिल के एक बार
पलटे पड़े सवारों के लेकर रिसालादार
दो ग़ूल बांधै आए कमांदार दस हज़ार
तीर अफ़गनों में तेग़ों में भालों मे घिर गए
बेकस हुसैन बर्छियों वालों में घिर गए