न मसजिद में अज़ां होती न सजदों का पता होता
अगर इक पल को भी तसवीह का पहरा हटा होता
उतरती आयाए ततहीर किसकी शान में आख़िर
किसे उम्मे अबीहा मुरसले दीं ने कहा होता
फरिश्ते रोटियों को मांगने फिर किस के घर जाते
कहां रिज़वान ने हसनैन का कपड़ा सिला होता
कहां फिर पंजतन के नाम की महफिल सजी होती
कहां तोहफा किसा सा हम ग़रीबों को मिला होता
नबी इनसे अली इनसे हसन इनसे हुसैन इनसे
अगर ज़हरा नहीं होती तो इस दुनिया में क्या होता
न दहशत गर्द कहता ये जहां तुमको मुसलमानों
दरे ज़हरा जलाने वालों से गर फासला होता
मदीने की ज़मी शब्बीर हिजरत कर गए वरना
तुम्हारी ख़ाक का भी एक लक़ब ख़ाके शिफा होता
सरे असगर की जानिब देखकर ये अंबिया बोले
ये बच्चा नौजवां होकर अली का आईना होता
सवा नैज़े का सूरज झेलता कैसे सरे महशर
रिदाए फातेमा ज़हरा नहीं होती तो क्या होता