आज मुझे इस मजलिस में शहज़ादी उम्मे कुलसूम सलामुल्लाह अलैहा का ज़िक्र करना है। जिस तरह हमेशा हम शहज़ादी सानी-ए-ज़हरा ज़ैनब को याद करते हैं, आज शहज़ादी उम्मे कुलसूम सलामुल्लाह अलैहा को याद करेंगे।
चश्म-ए-तसव्वुर से देखिए कि यह घर है हज़रत अमीरुल मोमिनीन इब्ने अबी तालिब का, जिसमें एक बाग़ खिला है और यह बाग़ बड़ा पुर बहार है। बहुत से फूल खिले हैं। आप ग़ौर करें तो इन फूलों के नाम खुद याद आ जाएंगे। इनमें एक फूल सियाह रंग का है, एक सफेद, एक सब्ज़ और एक सुरख रंग का फूल है।
सब्ज़ रंग का फूल हसन मुजतबा की याद दिलाता है। सब्ज़ रंग अमन व सुलह से इबारत है। सुरख फूल हुसैन इब्ने अली से वाबस्ता है। यानी अगर कोई समझाने से न समझे, हिदायत से न माने तो उसके लिए यह ख़तरे का निशान बन जाता है। सुर्ख रंग तंबीह भी है और सज़ा की अलामत भी। मज़लूमियत की यादगार भी है।
सियाह रंग का फूल हज़रत ज़ैनब की यादगार है। शहज़ादी की ज़िंदगी अज़ इब्तिदा ता इंतिहा सियाह पोशियों व गरिया व ज़ारी में गुज़र गई। नाला व शियोन से भरी है शहज़ादी की ज़िंदगी। और सफेद रंग का फूल शहज़ादी उम्मे कुलसूम से इबारत है। हम शहज़ादी सानी-ए-ज़हरा का तज़किरा हमेशा करते रहते हैं। कसरत से शहज़ादी की मजलिस का इनअक़ाद होता है
और हर मजलिस में, ख़्वाह किसी शहीद या किसी मज़लूम के ज़िक्र की मजलिस हो, सानी-ए-ज़हरा का ज़िक्र होता है। तो क्यों न हम इसी तरह उम्मे कुलसूम का ज़िक्र शिद्दत से किया करें। मालूम है यह शहज़ादी कौन हैं? यह भी शहज़ादी-ए-कौनैन की साहिबज़ादी हैं और तमाम मसाइब व आलाम में शहज़ादी सानी-ए-ज़हरा की बराबर की शरीक रहीं। रसूल की नवासी हैं, ख़दीजतुल कुबरा की नवासी, दर-ए-अली मुर्तज़ा की लख़्त-ए-जिगर हैं। हज़रत अबू तालिब की पोती हैं। हज़रत जाफ़र तय्यार की बहू और हज़रत मुहम्मद इब्ने जाफ़र की ज़ौजा हैं। हसन और हुसैन की बहन और औन और मुहम्मद की खाला हैं। इन्हीं मोहतरम बीबी के बारे में मुझे अर्ज़ करना है।
शहज़ादी-ए-कौनैन की साहिबज़ादियां – एक ज़ैनब बिन्त अली, दूसरी उम्मे कुलसूम बिन्त अली। एक शहज़ादी-ए-कौनैन की तस्वीर तो दूसरी ज़ैनब की तस्वीर। एक सानी-ए-ज़हरा तो दूसरी सानी-ए-ज़ैनब। अगर ज़ैनब शरीकातुल हुसैन तो उम्मे कुलसूम शरीकातुल ज़ैनब हैं।
दोनों का ताल्लुक़ जिस्म और रूह का ताल्लुक़ है, गुल और खुशबू का ताल्लुक़ है। ज़ैनब चराग़ हैं तो कुलसूम उसकी रौशनी। जनाब ज़ैनब आँख हैं तो कुलसूम उसका नूर
तारीख-ए-कर्बला गवाह है कि दोनों जिस्म और रूह की तरह साथ-साथ हैं। दोनों ने एक-दूसरे का साथ कभी न छोड़ा।
शाम-ए-ग़रीबां है और जनाब ज़ैनब बच्चों को तलाश कर रही हैं तो जनाब उम्मे कुलसूम जले हुए और लूटे हुए ख़ेमों पर पहरा दे रही हैं।
शाम तक बच्चे ऊंटों से गिरते जाते हैं। ऊंटों से पाएमाल होकर मर जाते हैं तो एक बहन क़ब्रें खोदती है तो दूसरी लाशें उठाकर ख़ुतबे देती, नज़र कर लुटा रही है। दरबारों और बाज़ारों में ज़ैनब ख़ुतबे देती नज़र आती हैं तो कभी उम्मे कुलसूम – हर बार यही महसूस होता है कि जैसे अली ख़ुतबे दे रहे हैं। अगर ज़ैनब की पुश्त ज़ख़्मों से फिगार है तो उम्मे कुलसूम की पुश्त भी चाक-चाक है।
ज़ैनब पर कोड़े बरसते देख कर उम्मे कुलसूम फ़रियाद करती हैं कि, "ज़ालिमो, ज़ुल्म बंद करो! मेरी बहन कितनी अज़ीयत उठाएगी? अगर ज़ुल्म का शौक़ हो तो मेरी पुश्त पर कोड़े मारकर तसल्ली कर लो!"
जनाब सकीना फ़रमाती हैं कि, "मैंने देखा, मेरी फूफी उम्मे कुलसूम की पुश्त ज़ख़्मों के निशानों से सियाह हो चुकी थी।"
सारे ज़ुल्म बर्दाश्त करती रहीं और हर लम्हा, हर पल अपनी बड़ी बहन सानी-ए-ज़हरा की ख़िदमत में हाज़िर रहीं और उनके साथ-साथ चलती रहीं।
यह हमारी बदक़िस्मती नहीं तो और क्या है कि हम अपनी छोटी शहज़ादी का ज़िक्र बड़ी शिद्दत और कसरत से नहीं करते? ख़ुदा न करे कि रोज़-ए-महशर हमसे शहज़ादी-ए-कौनैन सवाल करें कि "तुम लोगों ने मेरी छोटी मज़लूम बेटी को क्यों न याद किया?"
ख़ुदा की क़सम, दीन-ए-ख़ुदा के लिए उम्मे कुलसूम की क़ुर्बानियां कुछ कम नहीं। शहज़ादी ने कुछ कम मसाइब व आलाम नहीं झेले।
जैसे इमाम हसन और इमाम हुसैन के बज़ाहिर मसाइब व आलाम में फ़र्क़ नज़र आता है, लेकिन मरतबा दोनों का एक है। दोनों नवासए रसूल हैं, दोनों मोहम्मद के प्यारे हैं, और दोनों अली व बतूल के दुलारे हैं।
रसूल-ए-इस्लाम के एक ज़ानू पर हसन बैठे हैं, दूसरे पर हुसैन। नबी एक का मुँह चूमते हैं तो दूसरे के गले के बोसे लेते हैं। सवारी बनते हैं तो दोनों के लिए। मुबाहले के लिए जाते हैं तो दोनों को लेकर जाते हैं। आहू के बच्चे आते हैं तो दोनों के लिए। जन्नत से मल्बूसात आते हैं तो दोनों के लिए आते हैं।
यह वाक़िआ भी आप सब को याद दिला दूँ कि एक मरतबा दोनों शहज़ादे तख़्तियाँ लिखकर माँ के पास आए और पूछने लगे – "अम्मा, बताइए कि किसकी तहरीर अच्छी है?"
शहज़ादी के गले में समात था। आप ने उनके सातों मोती ज़मीन पर बिखेर दिए – यमनी मोतियों का हार था। और फ़रमाया –
"बच्चों, जो ज़्यादा मोती चुन ले, उसकी तहरीर अच्छी है।"
दोनों शहज़ादों ने तीन-तीन मोती चुने ही थे कि बारगाह-ए-ख़ुदावंदी से जिब्रईल को हुक्म हुआ कि जाओ और सातवें मोती के दो टुकड़े कर दो।
जिब्रईल आए और हुक्म की तामील कर दी। दोनों शहज़ादों ने आधा-आधा मोती ले लिया। ख़ुदा ने बता दिया कि इतनी सी बात में भी दोनों शहज़ादों में फ़र्क़ करना क़बूल नहीं है।
इसी तरह यक़ीनन दोनों शहज़ादियों के मरतबे में भी कोई फ़र्क़ नहीं है। दोनों ही दीन व दुनिया की शहज़ादियां हैं। दोनों ने दीन-ए-ख़ुदा के लिए अपनी-अपनी तरफ़ से क़ुर्बानियां पेश की हैं। इस उम्मत के लिए भाई की वसीयत की तामील में मसाइब व आलाम उठाए हैं।
शहज़ादी को बड़ा दुख था कि उनकी जानिब से बारगाह-ए-शहादत व इमामत में औलाद की क़ुर्बानी पेश न हो सकी। और शहज़ादी शब-ए-आशूर इस बात का इज़हार भी कर रही थीं। तो आपको याद होगा कि अब्बास इब्ने अली ने कहा:
"शहज़ादी, मैं आपकी तरफ़ से फ़िदया बनकर इमाम-ए-मज़लूम पर अपनी जान क़ुर्बान करता हूँ।"
शायद शहज़ादी ऐसी ख़्वातीन के लिए भी नमूना-ए-अमल बन जाएं, जिन्हें औलाद नहीं हुई।
मस्लहत-ए-ख़ुदावंदी वही जाए, शिकायत की गुंजाइश नहीं बाक़ी।
जिन्हें औलाद नहीं होती, आल-ए-मोहम्मद में भी एक ऐसी फ़र्द मौजूद थीं। औलाद का न होना बज़ाते ख़ुद एक अज़ीम दुख है। जिन्हें यह दौलत नहीं मिली, वही जानते हैं कि यह दर्द क्या है।
हज़रत इब्राहीम से पूछिए कि यह दुख क्या है?
जिन्होंने चालीस बरस तक बारगाह-ए-ख़ुदावंदी में हाथ फैला-फैला कर औलाद के लिए दुआ मांगी और उस वक़्त तक अपना दामन नहीं समेटा, जब तक कि इस्माईल जैसा बेटा अता न हो गया।
हज़रत ज़करीया से पूछिए, जिन्होंने नब्बे (90) बरस तक यह दुख झेला। आख़िर बर्दाश्त न हो सका तो अल्लाह तआला से दुआ की और जब अल्लाह तआला ने औलाद दी, तो दिल को सुकून आया।
लेकिन जनाब उम्मे कुलसूम के तज़किरों में नहीं मिलता कि उन्होंने औलाद के लिए दुआ की हो।
शायद शहज़ादी ने यह अज़ीम दुख इस लिए ख़ामोशी से सह लिया कि उम्मत-ए-मोहम्मदी की वह ख़्वातीन, जिन्हें औलाद न हो सके, वह शहज़ादी को देखकर सब्र हासिल कर लें।
शायद शहज़ादी ज़बान-ए-हाल से कह रही हों कि जो जिसे नेअमत-ए-औलाद न मिले, वह मेरी तरफ़ देखकर क़नाअत करे, सब्र से काम ले कि उनकी रहबर ख़्वातीन में भी एक ऐसी हस्ती मौजूद है और उन्हें अपनी हालत पर सब्र आ जाए।
इसके अलावा मशहूर है कि जिसे औलाद न हो, वह शहज़ादी उम्मे कुलसूम का वसीला देकर दुआ करे और चालीस दिन तक
"या उम्मे कुलसूम बिन्ते अली, उक्नी फी सबीलिल्लाह"
का विर्द करती रहे, तो ख़ुदावंद-ए-आलम, शहज़ादी उम्मे कुलसूम की दुआओं से उसकी गोद भर देगा।
यह शायद इसलिए हो कि ग़रीब, ग़रीब के दुख को जानता है, बीमार, बीमार के दर्द को समझता है। और फिर शहज़ादी की बेटी के वसीले से मुराद बर आती है और इसी वजह से शहज़ादी के वसीले से यह दुआ क़ुबूल होती है।
मालूम हुआ कि न शहज़ादगान हसन व हुसैन में कोई फ़र्क़ है और न ही शहज़ादी ज़ैनब और शहज़ादी उम्मे कुलसूम में कोई फ़र्क़ है।
तो हमारा भी यह फ़र्ज़ है कि हम भी दोनों शहज़ादियों को उसी शिद्दत से याद करें, कसरत से उनके लिए नौहा पढ़ें और उनका मातम करें। सुना है कि पाकिस्तान में बड़ी धूमधाम से शहज़ादी का ताबूत उठाया जाता है। दस्तरख़्वान किए जाते हैं और दस्तरख़्वान पर मन्नतें मानी जाती हैं। उनके वसीले से हर दुआ क़ुबूल हो जाती है।
दो रकअत नमाज़ हदिया उम्मे कुलसूम (स.अ.) की पढ़ें और मन्नत मानें कि,
"बार-ए-इलाही! मेरी मुराद पूरी हो तो मैं शहज़ादी के नाम से मजलिस कराऊंगी, जिसमें उनका तज़किरा होगा, शहज़ादी का मातम होगा।"
तो आप देखिए कि दुआ कितनी जल्दी क़ुबूल होती है, मुराद कितनी जल्दी पूरी होती है कि अक़्ल हैरान हो जाएगी।
मशीयत-ए-ख़ुदावंदी भी यही है कि शहज़ादी को याद किया जाए, उनका वसीला दिया जाए।
कोई भी उनके वसीले से दुआ करे, इंशाअल्लाह क़ुबूल हो जाएगी।
याद रखिए! शहज़ादी-ए-कौनैन की इस मज़लूम शहज़ादी को, जिस तरह हम बीबी ज़ैनब (स.अ.) का अज़ादारी मनाते हैं, उसी तरह एक दिन उम्मे कुलसूम (स.अ.) के लिए मुक़र्रर कर लीजिए और मनाइए, ताकि दोनों शहज़ादियों का तज़किरा होता रहे और दोनों का हक़ हद-ए-इमकान अदा हो सके।
शहज़ादी सानी-ए-ज़हरा (स.अ.) के मौजिज़ात सुने जाते हैं, उसी तरह शहज़ादी उम्मे कुलसूम (स.अ.) के मौजिज़ात भी सुन लिया करें। कराची में एक जाफ़र अब्बास थे, जो अब हयात नहीं हैं। उनकी ज़िंदगी में उनकी ज़ौजा सख़्त बीमार हो गईं। हर क़िस्म का इलाज कराया, मगर बुख़ार जाता न था। किसी तरह शिफ़ा की कोई सूरत नज़र न आती थी।
सोचने लगे कि अगर ज़ौजा दुनिया से गुज़र गईं, तो वह किस तरह अपनी छह बेटियों की देखभाल कर पाएंगे और इन बेटियों पर क्या गुज़रेगी।
एक रात ज़ौजा की हालत ज़्यादा ख़राब हो गई, तो सर सज्दे में रखकर देर तक रोते रहे और दुआ करते रहे कि, "बार-ए-इलाही! मेरी ज़ौजा को सेहत अता कर।"
एक मर्तबा महसूस किया कि एक शहज़ादी चादर में पोशीदा सामने से गुज़र रही हैं और किसी ने आवाज़ दी कि "चाय के प्यालों पर उम्मे कुलसूम (स.अ.) की नज़र करने की मन्नत मान ले, तेरी दुआ क़ुबूल होगी और शहज़ादी के सदक़े में तेरी ज़ौजा को शिफ़ा हो जाएगी।"
वह कहते थे कि इस सदा को सुनकर उन्होंने दो प्यालों में चाय बनाकर रखी और शहज़ादी उम्मे कुलसूम (स.अ.) की नज़र की और दुआ की कि, "शहज़ादी पाक! परवरदिगार से सिफ़ारिश फरमा दें कि मेरी ज़ौजा को सेहत हो जाए, मैं आपका मौजिज़ा पढ़ूंगा और समझूंगा कि आपके एजाज़ से शिफ़ा नसीब हुई।
वह कहते थे कि इस नज़र के बाद दवा असर करने लगी और बहुत जल्द उनकी ज़ौजा को सेहत हो गई।
आपने शहज़ादी का करम देखा कि कैसी चीज़ नज़र करने का हुक्म हुआ, जिसके अदा करने में ग़रीबों को भी मुश्किल न हो, वरना कोई क़ीमती चीज़ भी बताई जा सकती थी।
आज भी पाकिस्तान में बेशुमार लोग चाय के प्यालों पर शहज़ादी की नज़र करते हैं। उनकी मन्नतें अदा करना बताता है कि उनकी मुरादें पूरी होती हैं, उनकी दुआएं शहज़ादी के वसीले से क़ुबूल होती हैं।
यह वह मुक़द्दस ज़ात है, जिनकी मां-ए-गरामी सैय्यदतुन निसा-इल-आलमीन हैं। आपका ज़िक्र करना इबादत से कम नहीं।
आज हम उनकी बारगाह में सर झुकाए बैठे हैं।
ऐ अहल-ए-मुशकिल! वसीला दो इस बीबी का अपनी मुश्किलात के हल के लिए, और वसीला बनाओ इस बीबी को अपनी दुआओं की क़ुबूलियत के वास्ते। मन्नतें मानो, इस शहज़ादी के लिए मजलिस करो, इस बीबी के मसाइब के तज़किरा के लिए और देखो तुम्हारी दुआएँ कितनी तेजी से कबूल होती हैं ख़ास तौर पर औलाद के सिलसिले में। मैंने जो अभी अर्जी किया उसे याद रखो और आज़मा कर देख लो, इंशा अल्लाह मुराद हासिल होगी। यह वह शहज़ादी हैं जिनकी तरफ़ से हुसैन इब्ने अली पर क़ुर्बान होने के लिए अब्बास फ़िदया बने थे। अब्बास का पुर्सा लेने मजलिस में शहज़ादी कुनैन और शहज़ादी उम्मुल बनीन के साथ शहज़ादी उम्मे कुलसूम भी तशरीफ़ लाती हैं।
इस मोहतरम बीबी के बारे में मुझे अर्जी करना है। यह वह बीबी हैं जिन्होंने बाद शहादत-ए-हुसैन सबके साथ बराबर के मसाएब उठाए। जिन्होंने चादर की क़ुर्बानी देकर इस्लाम की कश्ती पार लगाई। अपने पुर-असर ख़ुत्बों और लहू से शजर-ए-इस्लाम को सींचा और उसे मुरझाने नहीं दिया। जिन्होंने अपनी ज़िंदगी के चिराग़ की लौ को देकर इस्लाम का चिराग़ रौशन किया। यह वह बीबी हैं जिन्होंने कूफ़ा और शाम के बाज़ारों और दरबारों में ख़ुत्बे देकर ग़ैरत-ए-इस्लाम को ललकारा और नाम के मुसलमानों के ज़ेहन और ज़मीर को चौंका दिया। वह बीबी जो बज़ाहिर बेसहारा और बेवारिस थी, वह इस्लाम का बड़ा सहारा बन गई। जो मज़ालिम और ज़ुल्म-ओ-सितम सह कर भी हमेशा साबित क़दम रही। यह एहसान उनके लिए बड़ा तसल्ली बख़्श था कि लख़्ते जिगर नहीं तो क्या हुआ? सहारे नहीं तो क्या? भाई हसन तो हैं, भैया हुसैन तो हैं, बहन ज़ैनब तो हैं, उनके लाडले औन-ओ-मोहम्मद तो हैं, आले रसूल का हरा-भरा घर तो है। इन सब के होते हुए उन्हें किसी बात का दुख न था। मगर इन सब के बावजूद एक वक़्त ऐसा आया कि जब शहज़ादी को भी औलाद के न होने का रंज हुआ और यह शब-ए-आशूर थी, जब फ़ौज-ए-हुसैनी के बूढ़े और जवान, औरतें और बच्चे सब हुसैन मज़लूम पर अपनी जान और माल-ओ-मता, अपनी आल-ओ-औलाद की क़ुर्बानियाँ पेश करने के जज़्बे का इज़हार कर रहे थे, अपने पुरजोश अज़ाइम का ऐलान कर रहे थे। असहाब-ओ-अंसार अपनी वफ़ादारियों का इज़हार कर रहे थे। हुसैन मज़लूम तारीकी-ए-शब में असहाब-ओ-अंसार और अहल-ए-हरम के ख़ैमों का जायज़ा ले रहे थे।
ज़ैनब के ख़ैमे में आपने देखा कि बहन ने अपने दोनों बेटों को हथियारों से आरास्ता करके अपने पास बिठाया और कहती जाती थीं, "मेरे प्यारों, तुम मरने के लिए नहीं बने हो, मगर आज आल-ए-मोहम्मद की बारगाह-ए-इलाही में क़ुर्बानियों का दिन है।"
"कल तुममें शान-ए-जा'फर-ए-तय्यार दिखनी चाहिए। दुश्मनों से लोहा लेना और अपनी जानें मामू पर निसार कर देना। माँ को दूसरी बीबियों के सामने शर्मिंदा मत करना। कल तुम्हारा खून में नहाना ही माँ की सरख़रुई है।"
इमाम ने यह सुना और कहा, "परवरदिगार, मेरी बहन को सब्र अता करना।"
भाई हसन के ख़ैमे में देखा कि उम्मे फ़रवा अपने दोनों लाडलों को नसीहत कर रही हैं,
"बेटा, कल अपनी जानें ख़ुदा के दीन और इमाम की हिफ़ाज़त के लिए फ़िदा कर देना।"
इमाम ने जज़ाए ख़ैर की दुआ कर के आगे बढ़े। बहन उम्मे कुलसूम के ख़ैमे से सदाए ग़िरया सुनी। शहज़ादी शिकवा कर रही थीं,
"परवरदिगार! कल भाई हुसैन और नाना के इस्लाम पर सब अपने-अपने लख़्त-ए-जिगर क़ुर्बान करने की तैयारी कर रही हैं। मैंने औलाद न होने का शिकवा कभी न किया। मगर कल महशर में नाना रसूलुल्लाह, माँ फ़ातिमा ज़हरा मुझसे सवाल करेंगी कि ‘बेटी! तुमने अपने भाई पर किसे "फिदया किया? तुमने राह-ए-ख़ुदा में क्या क़ुर्बानी पेश की?"
"तो मैं क्या जवाब दूँगी? क्या मुझे शर्मिंदा न होना पड़ेगा? हाए, मेरी औलाद न हुई!"
"आज अगर मेरा बेटा होता, तो मैं भी उसे माँ जाए पर क़ुर्बान कर देती।"
यह कहते-कहते शहज़ादी ने बुलंद आवाज़ से ग़िरया किया। अब्बास तलवार सैक़ल कर रहे थे। शहज़ादी की आवाज़ सुनी तो ख़ैमे में आए। पूछा,
"शहज़ादी, ग़िरया का सबब क्या है?"
उम्मे कुलसूम ने वजह बताई, "भैया, कल सब बीबियाँ अपनी-अपनी औलाद की क़ुर्बानी पेश करेंगी। मेरा तो कोई फ़रज़ंद नहीं, मैं क्या क़ुर्बानी पेश करूँ?"
अब्बास ने हाथ जोड़कर अर्ज़ किया, "शहज़ादी, यह जानिसार कल आपकी तरफ़ से इमाम पर शुमार होगा। मुझे अपना फिदया बना लें।"
शहज़ादी का रोना थम गया। अब्बास को सीने से लगाया और कहा,
"बार-ए-इलाही! कल मेरी जानिब से मेरा भैया अब्बास मेरा फ़िदया बनकर अपनी क़ुर्बानी तेरी राह में पेश करेगा। इसे क़ुबूल फ़रमा।"
अज़ादारों! भाई और बहन की यह बे-मिसाल मोहब्बत देखकर इमाम-ए-मज़लूम की आँखों से अश्क जारी हो गए।
आगे बढ़े। उम्मे लैल़ा के ख़ैमे में देखा कि अली अकबर मसनद पर बैठे हैं "माँ बेटे के सिरहाने खड़ी लाड़ले जवान के हसीन चेहरे पर नज़र जमाए हुए कह रही है— 'हाय, बेटा! यह चाँद सा चेहरा कल ख़ाक-ओ-ख़ून में डूब जाएगा। अफ़सोस! मेरा कोई अरमान पूरा नहीं हुआ। न तेरा सेहरा देखा, न तेरा ब्याह रचाया। मेरी अठारह बरस की कमाई बर्बाद हो जाएगी।'"
यह सुनकर इमाम भी रो पड़े।
उम्मे रबाब के ख़ैमे में आए। देखा, छह माह के अली असग़र को उम्मे रबाब गोद में लिए बहला रही हैं और बैन कर रही हैं—
"बेटा, कल क़ुर्बानि
यों का दिन है। बेटा, कल क्या तुम भी क़ुर्बानगाह में जाओगे? माँ को बर्बाद न कर देना, मेरे लाल!"
लाअनतुल्लाहि अलल-क़ौमिज़-ज़ालिमीन।