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Friday, June 17, 2022

मेरी सकीना को नींद

 


बानो ये आबिद को बतला रही है

मेरी सकीना को नींद आ रही है


कहदो हवाओं से आहिस्ता आएं

कहदो परिन्दों से ग़ुल न मचाएं

कहदो अंधेरों से वापस न जाएं

जागी हुई चैन कुछ पा रही है


शायद रसन की अज़ीयत हुई कम

मध्यम करो बीबियों शोरे मातम

सज्जाद ज़ंजीर बोले न इस दम

शायद ग़मों की घड़ी जा रही है


ज़िन्दां का दर ज़ोर से अब न खोलो

ऐ पहरेदारों अब आहिस्ता बोलो

तुम भी तो जागे हो कुछ देर सो लो

बाबा की ख़ुशबू इसे आ रही है



कि अब धड़कने दिल भी इसके गिरा है

न भाई भी नज़दीक न इसकी मां है

कानों से ख़ूं गो के अब भी रवां है

मगर आंख बोझल ये बतला रही है


ये शामे ग़रीबां की जागी हुई है

तमांचों के डर से नहीं सो सकी है

ज़रा अब गले से रसन जो खुली है

सुकूं से जो अब सांस ले पा रही है


मैं ख़ुश हूं कि सोएगी मेरी दुलारी

मैं क़ुरबान इसके मैं अब इसके वारी

बहुत सह चुकी दुख ये गाज़ी की प्यारी

मगर नब्ज़ कुछ और बतला रही है


मगर ये हुआ क्या कि ज़िन्दान रोया

बदन रूह के साथ बच्ची का सोया

न जागी वो आबिद ने शाना हिलाया

और अब मां ये कहके भी शरमा रही है


कहां तक लिखूंगा मैं रेहान नौहा

कभी शाम जाऊं तो देखूं वो रौज़ा

जहां क़ैदी बच्ची का मरक़द है तनहा

जहां मां अभी भी कहे जा रही है