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Monday, January 10, 2022

qadam qadam par charag

 

क़दम क़दम पर चिराग़ ऐसे जला गई है अली  की बेटी

यज़ीदियत की हर एक सज़िश पे छा गई है अली की बेटी


कहीं भी ऐवाने ज़ुल्म तमीर हो सकेगा ना अब जहां में

सिताम की बुनियाद इस तरह से हिला गई है अली की बेटी


अजब मसीहा मिज़ाज खातून थी कि लफ्जों की कीमिया सी

हुसैनियत को भी सांस लेना सिखा गई है अली की बेटी


भटक रहा था दिमाग़े इंसानियत झहालतों की तीरगी में

जनम के अन्धे  बशर को रस्ता दिखा गई है अली की बेटी


ख़बर करो अहले जौर को अब हुसैनियत इंतेकाम लेगी

यज़ीदियत से कहो संभल जाए आ गई है अली की बेटी


नबी का दीं अब संवर संवर के ये बात तस्लीम कर रहा है

उजड़ के भी अंम्बिया के वादे निभा गई है अली की बेटी


ना कोई लश्कर, ना सर पे चादर, मगर ना जाने हवा में क्योंकर

ग़ुरूर ज़ुल्मो सितम के पूर्ज़े उड़ा गई है अली की बेटी


पहन के खाके शिफ़ा का एहराम, सर बरहना तवाफ कर के

हुसैन तेरी लहद को काबा बना गई है अली की बेटी


काई खज़ाने सफर के दौरान कर गई खाक के हवाले

के पथ्थरों की जड़ों  हीरे छुपा गई है अली की बेटी


याक़ीं ना आ तो कूफ़ा ओ शाम की फ़ज़ाओं से पूछ लेना

यज़ीदियत की नक़ूश सारे मिटा गई है अली की बेटी


अबद तलक अब न सर उठाकर चलेगा कोई यज़ीद ज़ादा

ग़ुरूर शाही को खाक मैं यूं मिला गई है अली की बेटी


गुज़र के चुप चाप लशे अकबर से पा-बरहाना, रसन पहन केर

खुद अपने बेटों के कतिलों को रूला गई है अली की बेटी


मैं उसके लिए दर के गदागरों का गुलाम बन कर चला था मोहसिन

इसी लिए मुझको रंजो गम से बचा गई है अली की बेटी