दीन ओ दुनिया के सुलतानो आक़ा हम ग़रीबों का दामन भी भर दो
हक़ के वाली फ़कीरों के दाता हम ग़रीबों का दामन भी भर दो
तुम से रस्मे सख़ावत चली है, दर पे सारी ख़ुदाई पली है
सूरा ए इन्नमा हलअता में हर वसीला ब हर्फे जली है
रूहे मुश्किल कुशा जाने ज़हरा हम ग़रीबों का दावन भी भर दो
जब समन्दर से बावस्तगी है,फिर ये दामन में क्यो तशनगी है
क्या अक़ीदे में कोई कमी है या ग़रीबों से नाराज़गी है
क्यो अता में है ताख़ीर मौला हम ग़रीबों का दामन भी भर दो
कैसे ग़ाज़ी का परचम सजाएं,किस तरह फर्शे मातम बिछाएं
हांथ ख़ाली हैं ऐ मेरे मौला किस तरह हम तबर्रुक़ मंगाएं
वास्ता तुमको अश्क़े अज़ादारों का हम ग़रीबों का दामन भी भर दो
सच तो ये है कि अश्क़ो के बदले ख़ून आंखों में भरने लगा है
अब तो इस क़ौम की मुफ़लिसी पर ये जहां तंज करने लगा है
लाज रख लो मोहब्बत की मौला हम ग़रीबों का दामन भी भर दो
हम को मालूम है ख़ाली दामन आज तक कोई पलटा न दर से
आप के दर से ऐ मेरे मौला रोटियां ले गए हैं फ़रिश्ते
है सख़ी आपका कुल घराना हम ग़रीबों का दामन भी भर दो
है ज़माने की तारीकियों का कब से बीनाईयों में बसेरा
हो न जाए अंधेरों मे ओझल अपनी आंखों से अपना ही चेहरा
अब मुक़द्दर को दे दो सवेरा हम ग़रीबों का दामन भी भर दो
इस तरह फिर गए हैं अइज़्ज़ा हमको अब जानते ही नहीं हैं
हाय क्या अजनबी शै है ग़ुरबत लोग पहचानते ही नहीं हैं
कोई जीना है घुट घुट के जीना हम ग़रीबों का दामन भी भर दो