माविया और उसके बेटे यज़ीद के दौर-ए-हुकूमत में इस्लामी माशरे(समाज) में बहुत सी ख़राबियां आ गई थीं। इसका अन्दाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि यज़ीद जैसे बद्कार इंसान ने इस्लाम में हर वो फेल(काम) जो इस्लाम में हराम है वो हलाल करार दे दिया था और हलाल काम को हराम। ह० इमामे हुसैन अ०स० ने इसकी मुखालेफत की और कहा मुझ जैसा तुझ जैसे की बैय्यत नहीं कर सकता। उस वक़्त के हालात के पेशेनज़र इमाम ने फरमाया कि अगर कोई इंसान किसी मज़ालिम को देखता है और हराम को अपनी आंखो से हलाल और हलाल को हराम के तौर पर देखता है,लेकिन वो इस पर ख़ामोश है और किसी भी क़िस्म का एतराज़ नहीं करता तो उसने बहुत बड़ा गुनाह किया है और अल्लाह चुप रहने वाले को वही सज़ा देगा जैसे कि वो एक ज़ालिम हुकमरान हो।
अपने इस फरमान के बाद ह० इमामे हुसैन अ०स० ने बनी उमय्या की हुकूमत को ज़ालिम (अत्याचारी) हुकूमत बताया और कहा कि ऐसी ज़ालिम हुकूमत के ख़िलाफ खड़ा होना ज़रूरी है।
इसके बाद उन्होने कूफा(जो इराक़ में है) जाने का इरादा किया क्योंकि वहां के हज़ारों लोग अपनी रहनुमाई(मार्गदर्शन) के लिए इमाम को ख़त लिखकर कूफ़ा बुला रहे थे। ह० इमामे हुसैन अ०स० कूफे वालों के साथ मिलकर इस ज़ालिम हुकूमत के ख़िलाफ एक इन्क़ेलाब लाना चाहते थे।
लेकिन कूफे़ के लोगों ने अपने वादे(वचन) को नहीं निभाया और दुनियावी लालच में पड़कर उन्होने ह० इमामे हुसैन अ०स० का साथ नहीं दिया और उसमे से कुछ लोग तो बिलकुल अलग हो गए लेकिन ज़्यादातर लोग ह० इमामे हुसैन अ०स० के ख़िलाफ उमर इब्ने साद के हमराह होकर मुक़ाबले में आ गए।
लेकिन ह० इमामे हुसैन अ०स० को कूफियों की बेवफाई का अन्दाज़ा पहले से ही था। इसकी वजह यह थी की कूफ़ेवासियो ने ह० इमामे हुसैन अ०स० के वालिद(पिता) हज़रत अली अ०स० और बड़े भाई इमाम हसन अ०स० के साथ भी ऐसा ही कर चुके थे मदीने से करबला के सफर के दौरान कई मक़ामात(स्थानों) पर ह० इमामे हुसैन अ०स० ने फ़रमाया कि ये सफर मेरी शहादत का सफर है। कूफे वालों के बारें में इमाम का अन्दाज़ा बिलकुल सही साबित हुआ। हबीब इब्ने मज़ाहिर और मुस्लिम इब्ने औसजा जैसे कूफे के कुछ बुज़ुर्ग लोगों को छोड़कर किसी ने ह० इमामे हुसैन अ०स० का साथ नहीं दिया।
करबला में ह० इमामे हुसैन अ०स० और उनके साथियों की शहादत के बाद बहुत से लोगों को इस बात का पछतावा हुआ कि उन्होंने इमाम को अकेला क्यों छोड़ा? इस बात को लेकर बहुत से लोग शर्मिन्दगी हुई ख़ासकर जब इससे मुतालिक़ बाते इमामे सज्जाद(ह० इमामे हुसैन अ०स० के बेटे) और जनाबे ज़ैनब(ह० इमामे हुसैन अ०स० की बहन) के ज़रिए लोगों तक पहुंची। कूफियों को इस बात का पछतावा था कि काश उन्होंने इमाम का साथ दिया होता और उन्हे अकेला न छोड़ा होता।
जिन कूफियों ने ह० इमामे हुसैन अ०स० का साथ नहीं दिया और ख़ामोश रहे इमाम की शहादत के बाद तौबा(पश्चाताप) करना शुरू कर दिया। कूफे के लोग उन लोगों के मुक़ाबले अपने आपको ज़्यादा इमाम की शहादत का ज़िम्मेदार मानते थे जिन लोगों ने इमाम को क़त्ल किया। यही वजह थी के वे सब अन्दर ही अन्दर अपनी शर्मिंदगी की वजह से घुट रहे थे। वाक़्ए कर्बला(करबला की घटना) के बाद पशेमानी(पछतवा) करने वाले कूफियों के बीच मुसय्यब बिन नजबा ने कहा कि पैग़म्बरे इसलाम(यानी मोहम्मद स०अ०) के ख़ानदान के बारे में ख़ुदा ने हमसे जो इम्तेहान लिया हम उसमे पूरी तरह से नाकामयाब रहे हमने उनका साथ नहीं दिया और वे हमारे ही इलाक़े मे शहीद कर दिए गए। अब हम ख़ुदा को क्या मुंह दिखाएंगे कि हमने नबी के नवासे का साथ न देकर उन्हे ज़ालिमों के बीच अकेला छोड़ दिया अब हमारे पास सिर्फ एक ही रास्ता है कि हम ह० इमामे हुसैन अ०स० के क़ातिलों को सख़्त से सख़्त सज़ा दें। अगर इस रास्ते पर हमें मौत भी आ जाए तो कोई बात नहीं शायद इससे हम ख़ुदा को राज़ी कर सकें। मुसय्यब बिन नजबा की बात सुनकर बहुत से लोग ऐसा करने के लिए राज़ी हो गए।
सुलेमान बिन सुर्दे ख़ोज़ाई जो कूफे के बुज़ुर्ग लोगों में से थे और पैग़म्बरे इसलाम और हज़रत अली के साथी थे,कहा कि हम सब पैग़म्बरे इसलाम के ख़ानदान वालो की कूफे में आने का इन्तजार कर रहे थे हमी लोगों ने इमाम को कूफे आने की दवात दी हमी लोगों ने उनकी मदद का वादा किया था और जब वो आए तो हम लोगों ने वादा ख़िलाफी की जिसकी वजह से पैग़म्बरे इसलाम के नवासे अपने सभी अंसार व अक़रबा के साथ करबला में शहीद कर दिए गए अपनी बात मुकम्मल करने के बाद सुलेमान सुर्दे खोज़ाई ने कहा कि तुम लोग अब तहरीक(आन्दोलन) उठ खड़े हो जाओ। ना ही तुम्हे यहां से अपने घर जाना है न अपने घर वालों से मिलना है जब तक तुम लोग ह० इमामे हुसैन अ०स० के क़ातिलों से बदला नहीं ले लेते।
इस तरह कूफियों ने ह० इमामे हुसैन अ०स० के क़ातिलों के ख़िलाफ तहरीक करने क़सम खाई। मौजूद लोग सुलेमान सुर्दे ख़ोज़ाई को अपना सालार बनाना चाहते थे।उनका मानना था इस इन्क़ेलाब के ज़रिए वे अपने गुनाहों को धो सकेंगे और ख़ुदा को राज़ी कर सके़गे।
इस तहरीक का नाम क़यामे तव्वाबीन यानी तौबा करने वालों का तहरीक(आन्दोलन) सुलेमान सुर्दे ख़ोज़ाई ने इसकी कमान अपने हाथों में लेकर इसमे शामिल होने वाले लोगों के लिए कुछ क़ायदे क़ानून भी बनाए। इसके लिए तवील तदात में लोग तैयार हो गए।
क़यामे तव्वाबीन ने ह० इमामे हुसैन अ०स० की शहादत के बाद सन 61 हिजरी से 64 हिजरी के बीच फरीक़ैन(सदस्य) और जंगे आराइश(हथियार) जमा करना शुरू किया सन 64 हिजरी में यज़ीद की मौत की ख़बर के साथ ही कूफे वालों ने बग़ावत कर दी और कूफे के हाकिम को महल से निकाल कर उबैदुल्ला बिन ज़ुबैर की बैअत की उबैदुल्ला की हिमायत करने वाले बनी उमय्या के मुख़ालिफ(विरोधी) थे। इसलिए तव्वाबीन पर उनका बहुत कम दबाव था। इसी वजह से अब वे बेफिक्र होकर अपने मक़सद को अंजाम तक पहुंचा सकते थे।
तव्वाबीन में से कुछ लोगों को इस बात के लिए मामूर किया गया कि वे शिया मुसलमानों से मदद लेकर जंग के लिए हथियार व ज़रूरी समान ख़रीदें। सुलेमान बिन सुर्दे ख़ोज़ाई ने बसरा और मदाइन के लोगों को ख़त भेजकर तव्वाबीन तहरीक में शामिल होने की दरख़्वास्त की जिससे कि ह० इमामे हुसैन अ०स० के क़ातिलों से बदला लिया जा सके। उनकी इस दरख़्वास्त का असर हुआ और तक़रीबन १६००० लोग उनसे आ मिले।
और यह तय पाया गया कि यज़ीद मलऊन की मौत के एक साल बाद रबिउस्सानी सन 65 हिजरी में काम को अमल में लाना शुरू किया जाए।
तव्वाबीन तहरीक के एक सद्र ने सुलेमान को तजवीज़ दी और कहा कि हमने ह० इमामे हुसैन अ०स० के क़ातिलों से बदला लेने का इरादा किया है जिसमें ज़्यादातर लोग कूफे में मौजूद हैं क्यो न हम सभी का सफाया कर दें। बहुत से लोगों ने इस तजवीज़ सही क़रार दिया। उनका कहना था अगर हम बदला लेने के लिए शाम(सीरिया) जाते हैं तो हमे सिर्फ उबैदुल्लाह इब्ने ज़्याद ही मिलेगा (जो पहले कूफे का हाकिम था)
लेकिन ज़यादातर लोग कूफे में ही मौजूद हैं। सुलेमान ने इस तजवीज़ पर अमल करने से मना किया जिसकी वजह यह थी कि अगर कूफे में मौजूद लोगों से जंग की जाती तो उन्हे उनके क़बीले वालों से भी जंग करनी पड़ती जबकि उनका असल रकीब(दुश्मन) उबैदुल्ला इब्ने ज़्यादा था।
सुलेमान की इसी सोंच की वजह से मुख़्तारे सक़फ़ी ने उनका साथ देने से मना कर दिया। मुख़्तार कूफे के शोहरत मंद लोगों में से थे और बेहतरीन जंग जू थे।
मुख़्तार की सोंच सुलेमान से मुख़्तलिफ थी उनका मानना था कि किसी तहरीक को चलाने के लिए सियासती और लश्करी सलाहियत सुलेमान में नहीं पाई जाती।
वे कहते थे सुलेमान की सच्चाई पर कोई सवाल नहीं उठा सकता लेकिन सिपाह सलारी की कमान संभालने की सलाहियत नहीं है और उनके साथ लड़ाई पर जाने का मतलब सिर्फ ख़ुदकुशी के सिवा और कुछ नहीं। दूसरी तरफ सुलमान मक़सद केवल लड़कर शहीद होना ही था। हालांकि तव्वाबीन को मुख़्तार से ज़यादा सुलेमान पर भरोसा था लेकिन वे मुख़तार की बातों से ज़्यादा मुतास्सिर हुए। लगभग २००० लोग मुख़्तार से मुतास्सिर होकर मुख़ातार की तरफ आ गए। बाक़ी लोग शक में पड़ गए। इस बात का अन्दाज़ा इसी तरह लगाया जा सकता है कि तव्वाबीन की तादात तक़रीबन १६००० थी लेकिन लड़ाई के मुअय्यन वक़त पर केवल ४००० अफराद ही पहुंचे और तीन दिन पड़ाव डालने के बाद सिर्फ १००० लोग ही उनसे आकर मिले। मदाईन और बसरा से भी केवल ५०० अफराद ने इस जंग मे हिस्सा लिया।
इस जंग में ज्यादातर अफराद शहीद हो गए जैसा कि उनका मक़सद था। और बचे हुए अफराद मुख़्तार के साथ हो लिए।