रोके कहती थी ये मादर ऐ सकीना घर चलो
चैन आए मुझको क्योंकर ऐ सकीना घर चलो
जब चली थी मैं मदीने से तो थी गोदी भरी
अब नहीं गोदी में असग़र ऐ सकीना घर चलो
मांग भी उजड़ी है मेरी गोद भी ख़ाली हुई
अब न क़ासिम हैं ना अकबर ऐ सकीना घर चलो
पर्दा बालों से किया था शाम के दरबार में
मिल चुकी है हम को चादर ऐ सकीना घर चलो
तुम कहा करती थीं अम्मा कब वतन जाएंगे हम
अब वतन जाती हूँ छुटकर ऐ सकीना घर चलो
वो अंधेरी क़ब्र और वो क़ैदख़ाना शाम का
नींद आए तुमको क्योंकर ऐ सकीना घर चलो
ये बता दो जान मेरी पूछे गर सुग़रा तुम्हे
क्या बताऊं उसको जाकर ऐ सकीना घर चलो
तुम अकेली हो यहां बाबा का सीना भी नही
छोड़कर जाऊं मैं किस पर ऐ सकीना घर चलो
बैन से बानो के ज़ामिन क़ैद ख़ाना हिल गया
जब कहा मादर ने रोकर ऐ सकीना घर चलो