बेचैन करने वाली है पुरदर्द ये खबर
इक क़ाफिले का शाम की जानिब हुआ गुज़र
नसरानी सब के सब थे मुसलमां न था कोई
थीं औरतें भी साथ में बच्चे भी ख़ुश पिसर
जाना था दूर इस से वहीं पर किया क़याम
ख़ैमे लगाए चैन से करने लगे बसर
गुज़री थी थोड़ी रात के आवाज़ आई ये
सरदारे क़ाफिले मेरी तुरबत पे कर नज़र
जंगल में कोई पूछने वाला नहीं रहा
टूटी है क़ब्र लाश है पानी में तरबतर
ज्योंही सदा सुनी वो परेशान हो गया
जंगल में आके दूर से देखा इधर उधर
देखा बहुत तो क़ब्र पे उसकी पड़ी नज़र
रोने लगा वो क़ल्ब पे इतना हुआ असर
कहता था अपने दिल में ख़ुदाया ये कौन है
मरने के बाद कर नहीं सकता सुख़न बसर
हैरत ज़दा पलट गया हमराहियों के पास
सब से बयां किया उसे आया था जो नज़र
लेकर सभों को फिर गया तुरबत के पास वो
कहने लगा कि औरतें जायें क़रीब तर
देखो तो कौन दफ्न है ये वाक़ेया है क्या
फिर सौंप देंगे क़ब्र से मय्यत निकाल कर
ये कह के औरतों ने हटाई लहद की ख़ाक
मिट्टी हटी तो छोटी सी मय्यत पड़ी नज़र
कुछ इस तरह से लिपटी थी काली रिदा में वो
रोने लगीं वो औरतें पीटे सभों ने सर
दिल में हुआ ये शौक़ के सूरत भी देख लें
किसके चमन का फूल पड़ा है ये ख़ाक पर
ये सोंच कर लहद में बढ़ाए जो अपने हांथ
आवाज़ आई लाश से हट जाओ बस उधर
औलाद हैं नबी की अदब तुमको चाहिए
कलमा पढ़ो तो शौक़ से आओ क़रीब तर
लरज़ा हर एक जिस्म में आवाज़ से पड़ा
इमां का नूर क़ल्ब पे करने लगा असर
कलमा सभों ने पढ़के कहा रहियो तुम गवाह
इमान लाये अहमदे मुरसल पे बे ख़तर
इमान जब के क़ाफिले वाले सब ला चुके
मय्यत लहद से औरते लायीं निकालकर
काली रिदा हटा के जो रुख़ पे निगाह की
खाने लगीं ज़मीं पे पछाड़ें वो नौहागर
मर्दो ने हाल रोने का पूछा तो बोलीं वो
हैै है बताएं क्या हमे आया है क्या नज़र
रुख़ पर निशां हैं नील के सूखे हुए हैं होठ
है पैरहन फटा हुआ अब तक लहू में तर
तन पर तमाम ज़ख़्म हैं दुर्रों के जां बजां
कैसे थे दिल जिन्होने जफा की है आन पर
जंगल में किसने क़ब्र बनाई वतन से दूर
क्या वाक़ेया है कौन सुनाए हमें ख़बर
मां बाप इसके क्या हुए क्या उन पे बन गई
जंगल में कौन काम था आए थे क्यों इधर
आया न कुछ समझ में तो बोलीं ये लाश से
औलाद हो रसूले ख़ुदा की जो तुम अगर
देते हैं हम क़सम तुम्हे उनके नवासों की
अपना बताओ नाम कहो क्यों किया सफर
आवाज़ आई क़ब्र में जल्दी से रख्खो लाश
बेटी हूं मैं हुसैन की उजड़ा है मेरा घर
मुझको सकीना कहते हैं घर मदीने में
बे जुर्म मेरे बाप का काटा गया है सर
लाये थे मुझको साथ जो अपने मदीने से
वो सब गले कटाए पड़े हैं ज़मीन पर
आबाद करबला की ज़मी हो गई है अब
ख़ाक उड़ रही है फातेमा ज़हरा की क़ब्र पर
मां बहनें क़ैद ख़ाने से छुट कर वतन गयीं
मेरे लिए क़ज़ा ने बनाया यहीं पे घर
सुनकर सुख़न ये दर्द के रख्खी लहद में लाश
रौज़ा बना के फिर किया उन लोगों ने सफर
बस ऐ "रज़ी" ये वाक़ेया बेहद है पुर अलम
ख़ूं हो रहा है ऐसी मुसीबत में दिल जिगर