सुग़रा को रुलता है ये चांद मुहर्रम का
जब सामने आता है ये चांद मुहर्रम का
हम सूरते ज़हरा से भाई के बिछड़ने की
ख़ातूने क़यामत के घर बार उजड़ने की
रूदाद सुनाता है, ये चांद मुहर्रम का
कटा है गला लोगों सह रोज़ के प्यासे का
पामाल हुआ लाशा अहमद के नवसे का
हर इक को बताता है, ये चांद मुहर्रम का
तस्वीर दिखता है अहमद की जवानी की
हर शख़्स को दुनिया में करबल की कहानी की
तफ़सीर बताता है, ये चाँद मुहर्रम का
करबल की ज़ियारत को जो आँख तरसती थी
शब्बीर तेरे ग़म में जो आंख बरसती थी
उस आंख को भाता है, ये चांद मुहर्रम का
इमरान को शब्बर को खातून ए क़यामत को
हैदर की क़सम मज़हर सरकारे रिसलात को
तुरबत में रूलाता है, ये चांद मुहर्रम का