तारीख़ के किरदरो किस बात मे तुम कम हो
ऐ शह के अज़ादारों किस बात मे तुम कम हो
दरिया हो समंदर हो तुम सीप हो गौहर हो
तुम मर्दे-कलंदर हो सेहरा में गुले तर हो
तुम अज़मे अबूज़र हो तुम फ़िक्र के क़ंबर हो
तुम हुर का क़बीला हो तुम जौन का लश्कर हो
ऐ ग़म के अलमदरो किस बात मे तुम कम हो
रस्ता नहीं मंज़िल हो धड़कन नहीं तुम दिल हो
मज़लूम के तुम हमी हर जुल्म के क़ातिल हो
इंसान की अज़मत के हर बाम में शमिल हो
ज़ुल्मत के समंदर में तुम नूह का साहिल हो
मातम के तलबगारों किस बात में तुम कम हो
निसबत है पयंबर से निसबत तुम्हे हैदर से
इस निसबते मौला से तुम दूर रहे शर से
तुम आंख मिलाते हो हर वक़्त सितमगर से
जो दर्स मिला तुमको सलमान-से-बूज़र से
तुम रूप वही धरो किस बात में तुम कम हो
अब्बास के परचम से सीखी है वफ़ादारी
आंखों में तुम्हारे है ईमान की बेदारी
क़िस्मत से मिली तुमको मज़लूम की ग़मख़्वारी
ज़ालिम के लिए अब भी तुम तेग़ हो दो धारी
मजलूम के ग़म ख़्वारो किस बात में तुम कम हो
ज़ैनब की रिदा तुमसे करती है सवाल ऐसा
किस ग़म मे बहाते हो आंखों से लहू अपना
क्या घर में तुम्हारे भी पैग़ाम मेरा पहुंचा
जिस दींन के लाशे के काम आया मेरा परदा
लाज उसकी रखो देखो किस बात में तुम कम हो
क्या दर्स लिया तुमने अकबर की जवानी से
क्या सीखा बताओ तो करबल की कहानी से
मत बहलो ख़तीबों के अल्फाज़ो-मवानी से
महफूज हकीकत को रखना है कहानी से
ऐ इल्म के मेयारों किस बात मे तुम कम हो
मस्जिद के मुसलमानो मैदां के बनो गाज़ी
तुम हुर की तरह मांगो एक रात में आज़ादी
दरबार मे ज़ालिम के क्यूं बनते हो फरयादी
सज्जाद ने जिस तरह दीवारे सितम ढा दी
दीवारे सितम ढा दो किस बात में तुम कम हो
तुम नहजे बलाग़ा की तफ़सीर में ढल जाओ
हैदर की गुलामी का अंदाज तो अपनाओ
मजलूम को मत छेड़ो ज़ालिम से न घबराओ
हक़ बात जो कहना है सुली पे भी दोहराओ
अल्लाह के नक़्क़ारो किस बात में तुम कम हो
शब्बीर के मातम मे ईमां की हरारत है
ये ऐने इबादत है ये ऐने शरीयत है
शब्बीर के पैकर में इस्लाम की नुसरत है
खंजर के तले देखो क़ायम जो इबादत है
मौला के तरफ़दरो किस बात में तुम कम हो
सोचो तो ज़रा मंज़र तुम शामे ग़रीबां का
घर जलता था रन में जब उस वारिसे कुरआं का
पमाल था जब लाशा एक बेसरो-सामां का
किरदार मगर क्या था उस वारिसे क़ुरआं का
समझो तो से समझदारों किस बात में तुम कम हो
प्यासा था लबे दरिया वो लख़्ते दिल-ए-ज़हरा
आँखों से बरसता था ग़ुरबत मे लहू जिसका
वो वक्त भी था कैसा छे माह का एक बच्चा
हाथों पे तड़पता था पानी का न था क़तरा
उस वक़्त के जांबारों किस बात में तुम कम हो
हलमिन की सदा अब भी हम से यही कहती है
शब्बीर की नुसरत की दिल मे जो तमन्ना थी
क्या अभी भी है वो बाक़ी जो चाह थी मौला की
आवाज वही दिल की हर सांस में है अब भी
दहके हुए अंगरो किस बात में तुम कम हो
तुम राहे सदाकत से ईमान की हरारत से
किरदारे इमामत से अफ़कारे रिसालत से
तुम शौके शहादत से मौला की इनायत से
इस्लाम की ख़िदमत से मेयारे मोहब्बत से
तारिख़ नई लिख दो किस बात में तुम कम हो
ईमां है आज़ादी है दीन की बेदारी
जर्रारी-ओ-कर्रारी है अज़मे वफादरी
हिम्मत ना अगर हरी ज़िंदा रही खुद्दारी
मिलजाएगी सरदारी हैदर की तरफ़दारी
करके तो जरा देखो किस बात में तुम कम हो
रेहान पे सरवर पे मौला की इनायत है
नोहे की अज़ानो मे मातम की अक़ामत है
सच पूछो तो दोनो की हर सांस इबादत है
ऐ एहले अज़ा तुमको मातम की जो दावत है
मुह मोड के मत जाओ किस बात में तुम कम हो