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Sunday, June 12, 2022

ख़ामोश हैं अलक़मा की मौजें

  

ख़ामोश हैं अलक़मा की मौजें

फ़िज़ा में भी मौत का समां है

रिदाए ज़ैनब तेरा मुहाफ़िज़

उखड़ती सांसों के दरमियां है


हवाओं के रुख़ बदल रहे है

ख़याम दरिया से हट रहे है

किसी के तेवर बता रहे हैं

कि टूट पड़ने को आसमां है


सितम की पैका तो खींच लेंगे

हुसैन चश्मे जरी से लेकिन

ख़लिश का इक तीर और भी है

जो क़ल्बे अब्बास में निहां है


सकीना बीबी की तश्नगी का

जिगर पे अब तक है दाग़ बाक़ी

वहीं वहीं मश्क़ भी मिलेगी

अलम जरी का जहां जहां है


ब चश्मे पुरनम ब वक़ते रेहलत

अली ने जिन बाज़ुओं को चूमा

कहीं वो बाज़ू क़लम हुए हैं

कही पे अब उन में रीसमां है


लहू लहू पैकरे तमन्ना

क़रीब मश्क़ीज़ाए सकीना

गिरा है रहवार से वो ऐसे

कहीं पे बाज़ू कहीं निशां है


लगी है ख़ैमों में आग हर सूं

रिदाएं बेवों की छिन रही हैं

उदासियां पूछती हैं शाहिद

वो पासबाने हरम कहां है