ख़ामोश हैं अलक़मा की मौजें
फ़िज़ा में भी मौत का समां है
रिदाए ज़ैनब तेरा मुहाफ़िज़
उखड़ती सांसों के दरमियां है
हवाओं के रुख़ बदल रहे है
ख़याम दरिया से हट रहे है
किसी के तेवर बता रहे हैं
कि टूट पड़ने को आसमां है
सितम की पैका तो खींच लेंगे
हुसैन चश्मे जरी से लेकिन
ख़लिश का इक तीर और भी है
जो क़ल्बे अब्बास में निहां है
सकीना बीबी की तश्नगी का
जिगर पे अब तक है दाग़ बाक़ी
वहीं वहीं मश्क़ भी मिलेगी
अलम जरी का जहां जहां है
ब चश्मे पुरनम ब वक़ते रेहलत
अली ने जिन बाज़ुओं को चूमा
कहीं वो बाज़ू क़लम हुए हैं
कही पे अब उन में रीसमां है
लहू लहू पैकरे तमन्ना
क़रीब मश्क़ीज़ाए सकीना
गिरा है रहवार से वो ऐसे
कहीं पे बाज़ू कहीं निशां है
लगी है ख़ैमों में आग हर सूं
रिदाएं बेवों की छिन रही हैं
उदासियां पूछती हैं शाहिद
वो पासबाने हरम कहां है