ज़िंदा की तारीकियों में अपने सीने से लगाये हुए शब्बीर का सर
सकीना कहती थी …..बाबा-2 सुनो मेरा सफ़र
सबके थे शाने बंधे मेरा बंधा था गला-2
मैं पंजों पे चलती रही बाबा
आप कैसे कहूं कैसे कटा वो सफर
आले पंयबर चली रोते हुए नंगे सर
आप चले नेज़े पर कांटों पे भाई चला-2
मेरी फुफी राह मे अश्क़ बहाती रही
ज़ुल्म रुलाते रहे धूप जलाती रही
ज़ख़्म मेरे पांव का धूप से जलता रहा
माज़ी के कुछ वाक़ए याद जो आए मुझे
सीने पे कैसे मुझे आप सुलाते रहे
यादों में यूं खो गई भूल गई हर जफ़ा
सब्र का दावन मेरे हाथ से छूटा नहीं
नेज़े से क्या आप ने बाबा ये देखा नहीं
खिंचती रही रीसमा चलता रहा क़ाफ़ेला
आंख बरसने लगी क़ल्ब हुआ नौहा गर
आया नज़र जब मुझे नेज़े पे असग़र का सर
रोती रही मैं उसे वो मुझे रोता रहा
तुमको कफ़न दे दिया रेत के तूफ़ान ने
बालों से पर्दा किया मेरी फुफी जान ने
और मेरे दर्द का कोई मदावा न था
राह में अम्मू को जब देखा तो मैने कहा
खोल दो मेरी रसन गोद में ले लो चचा
देख के रोते रहे मेरी असीरी चचा
चैन मयस्सर मुझे आ न सका एक पल
ज़ख़्मी गला हो गया और मेरे पांव शल
रात सफर में कटी दिन भी सफ़र में कटा
बाबा मदीने के वो दिन भी मुझे याद हैं
सब्ज़ अमारी में जब बैठ के जाती थी मैं
आज ज़रा देखिए कैसे सफ़र तै किया
एक रसन में बंधे छोटे बड़ों के गले
लाशों पे रोते हुए कर्बोबला से चले
हाल मेरा देखकर रोने लगी करबला