सरवर को न समझे बानिए शर
अहमद का नवासा वा वैला वा वैला
ख़ैमे की कनातें जलती हैं
ताराज घराना होता है
सहमी हुई बच्ची को आकर
दे कौन दिलासा वा वैला वा वैला
किस तरह बचाती क्या करती
मा कोख जली मजबूर हुई
दो रोज़ के प्यासे मेहमा पर
ढाई है क़यामत वा वैला वा वैला
अब्बास नहीं क़ासिम भी नहीं
अकबर भी नहीं असग़र भी नहीं
मज़लूम पदर के हांथो पर
बच्चा है ज़रा सा वा वैला वा वैला
बौछार है तीरों की रन में
और आग बरसती है बन में
क्या नोके सिना के क़ाबिल था
अकबर का कलेजा वा वैला वा वैला
दरिया से क़दम पीछे न हटे
तलवार चली शाने भी कटे
बेगोर पड़ा है रेती पर
अब्बास का लाशा वा वैला वा वैला
अट्ठारह बरस पाला था जिसे
खाए हुए बर्छी सोता है
हमशक्ले नबी हमसाये नबी
था जो घर का उजाला वा वैला वा वैला