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Monday, June 6, 2022

घर वालों की फुरक़त में



घर वालों की फ़ुरक़त में सुग़रा का ये नौहा है

बीमार हूं तन्हा हूं ये भी कोई जीना है


ख़त लिखता नहीं कोई मालूम नहीं होता

कैसे हैं मेरे बाबा  क्या हाल चचा का है


जब रातों को उलझन में करवट मैं बदलती हूं

महसूस ये होता है पहलू मे सकीना है


उठ जाती है घबरा के यूं मेरी नज़र जैसे

अब तक किसी हुजरे में बेशीर का झूला है


हर शाम तुम्हारे ही जलवों के उजाले हैं

याद आते हो तुम भइया जब चांद निकलता है


बाबा जो सिधारे तो रुख़सत हुई सब रौनक़

सुनसान है घर मेरा वीरान मदीना है


ये चांद पे है ज़ाहिर सूरज से है सब रौशन

शब कैसे गुज़रती है दिन कैसे गुज़रता है


हैं आप अगर साबिर मैं आपकी बेटी हूं

हर हाल में ऐ बाबा बस शुक्र ख़ुदा का


कुछ रोज़ की दुनिया में कुछ देर की मेहमां हूं

यूं लगता है हर लम्हा बस आख़री लम्हा है


नौहे के तक़ाज़े सब पूरे न हुए नय्यर

सुग़रा से निदामत है तक़दीर से शिकवा है