घर वालों की फ़ुरक़त में सुग़रा का ये नौहा है
बीमार हूं तन्हा हूं ये भी कोई जीना है
ख़त लिखता नहीं कोई मालूम नहीं होता
कैसे हैं मेरे बाबा क्या हाल चचा का है
जब रातों को उलझन में करवट मैं बदलती हूं
महसूस ये होता है पहलू मे सकीना है
उठ जाती है घबरा के यूं मेरी नज़र जैसे
अब तक किसी हुजरे में बेशीर का झूला है
हर शाम तुम्हारे ही जलवों के उजाले हैं
याद आते हो तुम भइया जब चांद निकलता है
बाबा जो सिधारे तो रुख़सत हुई सब रौनक़
सुनसान है घर मेरा वीरान मदीना है
ये चांद पे है ज़ाहिर सूरज से है सब रौशन
शब कैसे गुज़रती है दिन कैसे गुज़रता है
हैं आप अगर साबिर मैं आपकी बेटी हूं
हर हाल में ऐ बाबा बस शुक्र ख़ुदा का
कुछ रोज़ की दुनिया में कुछ देर की मेहमां हूं
यूं लगता है हर लम्हा बस आख़री लम्हा है
नौहे के तक़ाज़े सब पूरे न हुए नय्यर
सुग़रा से निदामत है तक़दीर से शिकवा है